सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

इमानुअल नेे बताई वे तेरह बातें जिनकी वजह से उन्होंने इस्लाम अपनाया

मशहूर अफ्रीकी फुटबॉलर इमानुअल एडबेयर का मानना है कि ईसाइयों की तुलना में आज मुसलमान ईसा मसीह की बातों को ज्यादा मानते हैं। ईसा मसीह को मानने का दावा करने वाले ईसाई उनकी शिक्षाओं से दूर है जबकि मुसलमानों की जिंदगी में ईसा मसीह की बातें देखने को मिल जाएंगी। 


इमानुअल नेे बताई वे तेरह बातें जिनकी वजह से उन्होंने इस्लाम अपनाया-
                                  
                                   1
ईसा मसीह की शिक्षा थी कि ईश्वर एक ही है और सिर्फ वही इबादत और पूजा के लायक है
बाइबिल में है-
हे, इस्राइल, सुन, हमारा परमेश्वर सिर्फ एक ही है। (व्यवस्थाविवरण-6: 4)
यीशु ने उसे उत्तर दिया, सब आज्ञाओं में से यह मुख्य है; हे इस्राएल सुन; प्रभु हमारा परमेश्वर एक ही प्रभु है। (मरकुस-12:29)
मुसलमानों का विश्वास और आस्था भी यही है कि एक परमेश्वर के अलावा कोई इबादत के लायक नहीं।
कुरआन कहता है- 
अल्लाह तो केवल अकेला पूज्य है। यह उसकी महानता के प्रतिकूल है कि उसका कोई बेटा हो। आकाशों और धरती में जो कुछ है, उसी का है। और अल्लाह कार्यसाधक की हैसियत से काफी है। (4:171)
                                  2
 ईसा मसीह ने कभी सुअर का मांस नहीं खाया 
बाइबिल में है- 
और सुअर, जो चिरे अर्थात फटे खुर का होता तो है परन्तु पागुर नहीं करता, इसलिए वह तुम्हारे लिए अशुद्ध है।
इनके मांस में से कुछ न खाना, और इनकी लोथ को छूना भी नहीं; ये तो तुम्हारे लिए अशुद्ध है।                      (लेवव्यवस्था-11: 7-8)
मुसलमान भी सुअर का मांस नहीं खाते। 
कुरआन कहता है-
कह दो, 'जो कुछ मेरी ओर प्रकाशना की गई है, उसमें तो मैं नहीं पाता कि किसी खाने वाले पर उसका कोई खाना हराम किया गया हो, सिवाय इसके लिए वह मुरदार हो, यह बहता हुआ रक्त हो या ,सुअर का मांस हो - कि वह निश्चय ही नापाक है। (6:145)
                                                                  3
 ईसा मसीह ने भी अस्सलामु अलैकुम (तुम पर शान्ति हो) का संबोधन किया था। यही संबोधन मुस्लिम एक-दूसरे से मिलते वक्त करते हैं।
बाइबिल में है- 
यीशु ने फिर उनसे कहा, तुम्हें शान्ति मिले; जैसे पिता ने मुझे भेजा है, वैसे ही मैं भी तुम्हें भेजता हूं। (यूहन्ना-20: 21)
                                                                  4
ईसा मसीह हमेशा कहते थे-ईश्वर ने चाहा तो (इंशा अल्लाह) जैसा कि मुसलमान कुछ करने से पहले कहते हैं
कुरआन कहता है-
और न किसी चीज के विषय में कभी यह कहो, 'मैं कल इसे कर दूंगा।' बल्कि अल्लाह की इच्छा ही लागू होती है। और जब तुम भूल जाओ तो अपने रब को याद कर लो और कहो, 'आशा है कि मेरा रब इससे भी करीब सही बात की ओर मार्गदर्शन कर दे।'
 (18: 23-24)
                                                                      
ईसा मसीह प्रार्थना करने से पहले अपने हाथ, चेहरा और पैर धोते थे। मुस्लिम भी इबादत करने से पहले अपना हाथ, चेहरा और पैर धोते हैं यानी वुजू बनाते हैं।
                                                                      6 
ईसा मसीह और बाइबिल के दूसरे पैगम्बर अपना सिर जमीन पर टिकाकर प्रार्थना करते थे यानी सजदा करते थे।
बाइबिल में है-
 फिर वह थोड़ा और आगे बढ़कर मुंह के बल गिरा, और यह प्रार्थना करने लगा, कि हे मेरे पिता, यदि हो सके, तो यह कटोरा मुझ से टल जाए; तो भी जैसा मैं चाहता हूं वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।
 (मत्ती-26: 39)
मुसलमान भी अपनी इबादत में सजदा करते हैं।
कुरआन कहता है-
'ऐ मरयम! पूरी निष्ठा के साथ अपने रब की आज्ञा का पालन करती रह, और सजदा कर और झुकने वालों के साथ तू भी झुकती रह।' (3: 43)

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

अमरीकी महिला पुलिस अधिकारी ने अपनाया इस्लाम

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9/11  के बाद इस्लाम और मुसलमानों को लेकर जिस तरह का तनावपूर्ण माहौल बना उसके चलते इस्लाम को लेकर मेरी दिलचस्पी बढ़ी क्योंकि एक पुलिस अधिकारी के रूप में जिस तरह मेरे सामने घटनाएं हो रही थीं, मुसलमान और इस्लाम को बदनाम किया जा रहा था उससे मैं परेशान थी और इस्लाम के मामले में सच्चाई से अवगत होना चाहती थी।
   मेरा नाम राक्वेल है।  मैंने 2012 में इस्लाम कुबूल किया।मैं डेट्रोइट शहर में  पुलिस अधिकारी थी। साल 1996 से 2004 तक मैं डेट्रोइट शहर में पुलिस अधिकारी रहीं। मुझे ड्यूटी के दौरान वर्ष 2002 में  गोली लगी और मैं मरते-मरते बची। उस गोली से बचना मेरे लिए नया जीवन था।
 कुछ मुस्लिम दोस्तों से मिलने से पहले मैं नहीं जानती थी कि गॉड का अनुसरण, ईश्वर की आज्ञा का पालन किस तरह किया जाना चाहिए। मेरे मुस्लिम दोस्तों ने ही मुझे अवगत कराया कि धर्म क्या है और उसमें किस तरह यकीन किया जाना चाहिए। उन्होंने मुझे धर्म से जुड़ी कई बातों की जानकारी दी। उनकी बताई गई बातों और इल्म ने मेरी जिंदगी बदल दी और फिर मुझे अपनी मौत का डर नहीं रहा। हमें तो सिर्फ अल्लाह ही का डर रखना चाहिए। हमें नहीं पता कि हमारी जिंदगी दूसरे दिन भी रहेगी या नहीं, ऐसे में बेहतर है कि ईश्वर को एक मानने और उसकी आज्ञा के मुताबिक जिंदगी गुजारने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए।
इस्लाम अपनाने से पहले मुसलमानों को लेकर मेरी कोई सोच और अवधारणा नहीं थी। न मैं मुस्लिम पक्षधर थीं और न ही मुस्लिम विरोधी। हां, मेरी और मेरे परिवार की यह खूबी रही है कि हम खुले विचारों के थे। हर एक की आस्था और विश्वास का हम सम्मान करते थे।

पुलिस अधिकारी के रूप में मैं बेहद परेशान और विचलित हो गई जब मैंने देखा कि लोग डेट्रोइट शहर में बिना किसी वजह के मुसलमानों पर हमले करने लगे खासतौर पर 9/11 की घटना के बाद। यहां हालात काफी बिगड़े हुए थे और इन सबसे मैं बहुत दुखी हुई। मैं सोचती सिर्फ मुसलमान होने की वजह से इनको हमले का शिकार बनाना कहां तक उचित है? मुसलमान होने का यह कतई मतलब नहीं कि वे चरमपंथी ही हैं या चमपंथियों के समर्थक ही हैं। मैं जानती थी कि मेरे मुस्लिम दोस्तों का इस सबको लेकर गलत रवैया था ही नहीं। ना वे आतंकवादी थे और न ही हिंसा के समर्थक। वैसे देखा जाए तो अच्छे और बुरे लोग हर समाज और धर्म में मिल जाएंगे। मुसलमानों के  साथ इस तरह का व्यवहार देखकर मैं बहुत दुखी और विचलित हुई।
9/11 के बाद इस्लाम और मुसलमानों को लेकर जिस तरह का तनावपूर्ण माहौल बना उसके चलते इस्लाम को लेकर मेरी दिलचस्पी बढ़ी क्योंकि एक पुलिस अधिकारी के रूप में जिस तरह मेरे सामने घटनाएं हो रही थीं, मुसलमान और इस्लाम को बदनाम किया जा रहा था उससे मैं परेशान थी और इस्लाम के मामले में सच्चाई से अवगत होना चाहती थी।
लास वैगास में मुस्लिम के रूप में जीवन
एक मुस्लिम के रूप में मेरा अनुभव आश्चर्यजनक था। अब मैं सुकून महसूस कर रही थी और इस नए जीवन का पूरा लुत्फ उठा रही थी। लास वेगास में एक मस्जिद थी जहां मैं जरूरतमंदों के लिए कपड़े देने गई। लोग वहां रखी टेबल पर कपड़े छोड़ जाते थे और गरीब और बेसहारा लोग वहां आकर अपनी जरूरत के हिसाब से कपड़े ले जाया करते थे।
मैं जानती हूं कि कुछ लोग हतोत्साहित करते हैं कि नए धर्म से जुड़ी नई भाषा सीखना मुश्किल है। यह एक नया कल्चर है। यह धर्म नहीं जिंदगी गुजारने का तरीका है। बावजूद इन सबके मेरे लिए यह निराशा और हतोत्साहित करने वाला मामला नहीं था। मैं तो जल्द से जल्द तेजी से इस्लाम से जुड़ी जानकारी हासिल करना चाहती थी और मैं अपने तरीके से इस तरफ आगे बढ़ रही थी। हालांकि मेरे लिए इस्लाम को अच्छी तरह समझ पाना आसान भी न था क्योंकि मैं घर पर अकेली थी और मैं सिर्फ  इंटरनेट के जरिए ही इस्लाम से जुड़े विभिन्न जानकारियां हासिल कर पा रही थीं जैसे कि इस्लामी पर्दा हिजाब किस तरह बांधना चाहिए और अन्य बातें। ये सब कुछ मैं अपने स्तर पर ही सीख रही थी। लेकिन यह सब कुछ सीखना, जानना और इन पर अमल मेरे लिए आश्चर्यजनक और अलग हटकर अनुभव था। इन सबमें मुझो काफी लुत्फ आ रहा था और मैं अपने जीवन में बेहद सुकून और शांति का एहसास कर रही थी। यह सब मुझे अविश्वसनीय लग रहा था।
मुझे इस बात का पूरा यकीन था कि जो कुछ मैं कर रही हूं वह एकदम ठीक है। मैं पिछले दो साल से इस्लाम का अध्ययन कर रही थी। धर्मशास्त्र और अन्य विषयों की नॉलेज मेरे पास काफी थी। लेकिन इन सबका अनुभव व्यावहारिक जिंदगी में मैंने महसूस नहीं किया था। ना कभी मैं मस्जिद जाकर वहां लोगों की मदद का अनुभव हासिल किया था। मेरे काफी मुस्लिम दोस्त थे और मुस्लिम सहकर्मी भी जिन्होंने इस्लाम से जुड़ी काफी बातें मुझे बताई थी। लेकिन यह सब जब अमल के रूप में आया तो मुझे इस धर्म में मिलने वाले सुकून और मानसिक शांति का एहसास हुआ।
 पहले जब मैं नमाज पढ़ती तो नमाज से जुड़ी पूरी बातें समझ नहीं पाई और मैं इसे पूरी तरह दिल से अदा नहीं कर पाती। फिर मैंने ऐसी कई वेबसाइट्स तलाशी जहां नमाज आदि अरबी में भी थी और इसका अर्थ अंग्रेजी में भी दिया हुआ था। मैं इसे समझने लगी जो मुझे काफी प्रभावी और मजबूत लगा। इससे मैं खुद को सुरक्षित महसूस करने लगी। मेरा यह नजरिया बना कि इस दुनिया में सिवाय एक अल्लाह के किसी और से डरने की जरूरत नहीं। इस नजरिए और सोच से मुझे सुकून और चैन का एहसास हुआ। इस सबसे मेरी जिंदगी में एक नया उत्साह, जोश, सुकून और लुत्फ का आगाज हुआ।
मुझे पर्दा करना पसंद है और मैं करती हूं
इस्लाम में मुझे सबसे ज्यादा महिला का पर्दे में रहना पसंद आया। महिला का हिजाब पहनने ने मुझे आकर्षित किया और अब तो मैं भी ईमानदारी से हिजाब पहनती हूं। मैं यहां लास वैगास में इस्लामिक परिधान पहनने का पूरा खयाल रखती हूं जहां के लोग महिलाओं को घूर-घूर कर देखते हैं। ऐसे में मैं पर्दे में खुद को बेहद सुरक्षित महसूस करती हूं। दूसरी बात जो मुझे इस्लाम में पसंद आई वह है लगातार कुछ न कुछ सीखते रहना। मैं इस्लाम से जुड़ी बहुत सी जानकारी हासिल कर रही हूं और सीखते रहने को बहुत पसंद करती हूं। मेरा मानना है कि इल्म हासिल करते रहना ही जिंदगी है। नया कुछ सीखते रहना मुझे बेहद पसंद है और अब तो मैं रोज नया कुछ न कुछ सीखती ही रहती हूं। मैं रोज कुरआन का अध्ययन करती हूं। इस्लाम से जुड़े शिष्टाचार का अध्ययन करती हूं। नई-नई जानकारी हासिल करने का सिलसिला चालू है, दरअसल मुस्लिम भाई और बहिन इस मामले में मेरी काफी मदद करते हैं। एक अमेरिकी के रूप में आप उनसे मिलते हैं तो वे आपकी  मदद करते हैं। वे मुस्लिम ब्रदर काफी व्यवहार कुशल हैं और समझते हैं कि आप अरबी नहीं जानते और कई ऐसी बातें हैं जो सीखी जानी है, ऐसे में वे आपको बहुत कुछ सिखाते हैं और आपको गाइड करते हैं। मुझे ऐसे कई मुस्लिम ब्रदर मिले जिन्होंने मेरी इस्लाम संबंधी मामले में काफी मदद की।
सच बात तो यह है कि इस्लाम अपनाने के बाद जैसा सुकून और आत्मिक शांति मैंने महसूस की वैसा एहसास और अनुभव मुझे पहले कभी नहीं हुआ। 

रविवार, 23 नवंबर 2014

महिला एयरलाइन पायलट ने अपनाया इस्लाम

एक मुस्लिम पायलट होने के नाते मैं दुनिया को दिखाना चाहती हूं कि इस्लाम गुलामी और उत्त्पीडऩ का मजहब नहीं है जैसा कि कई लोग सोचते हैं और ना ही इस्लाम महिलाओं के कैरियर बनाने में बाधक है। इस सबके विपरीत आज मैं जिस मुकाम पर हूं, अल्लाह ही की मदद और करम से हूं।
मेरा नाम आयशा जिबरील अलेक्जेंडर है। रोमन कैथोलिक परिवार, स्कूल और यूनिवर्सिटी में मेरी परवरिश और शिक्षा-दीक्षा हुई। धर्म में शुरू से ही मेरी दिलचस्पी रही है और मैं अक्सर कैथोलिक मत के धर्मगुरुओं से सवाल करती रहती थी। लेकिन जब-जब मैंने ईसाईयत में ट्रिनिटी (तीन खुदा) पर सवाल खड़ा किया तो मुझे  स्कूल की नन हर बार यही जवाब देती थीं कि इस मामले में सवाल करके तुम पाप कर रही हो और तुम्हें बिना कोई सवाल किए अपनी आस्था बनाए रखनी चाहिए। मैं इस तरह के सवाल करने से डरने लगी और इसी के चलते मैं इसी आस्था और विश्वास के बीच बढ़ी हुई।
सन् 2001 में इस्लाम से मेरा पहली बार सामना हुआ जब मैंंने एक मुस्लिम मालिक की कैनेडियन कंपनी में काम करना शुरू किया। यहां इस्लाम से मेरा पहला परिचय हुआ। लेकिन मैं युवा थी और काम और कैरियर के प्रति पूरी तरह समर्पित थी, इस वजह से मैें धर्म से जुड़े सवालों को नजरअंदाज करते हुए अपना पूरा ध्यान अपने कैरियर को बनाने में देने लगी। परिवार में मेरी 61 वर्षीय मां और 93 वर्षीय दादी थी। मेरा परिवार कोलम्बिया से यहां आकर बसा था, मैं इस परिवार की जिम्मेदारी निभाने में जुट गई। इन दोनों महिलाओं ने मुझे  ईश्वर के प्रति प्यार और सम्मान करना सिखाया। इस्लाम की ओर मेरी यात्रा इन महिलाओं की इस शिक्षा के साथ शुरू हुई कि मैं बिना ईश्वर पर यकीन किए कुछ नहीं कर सकती। उन्होंने मुझे  ईश्वर का सम्मान करने की शिक्षा दी।
मेरी 2003 में शादी हुई। बदकिस्मती से इस शादी ने मुझे  घरेलू हिंसा का शिकार बना दिया। लेकिन मेंरे इस दुखद वक्त के बीच मुझे  एक प्यारा सा बेटा हुआ जो अभी आठ साल का है। मेरा पति ईश्वर पर यकीन नहीं रखता था और अपनी ख्वाहिशों के मुताबिक अपनी जिंदगी गुजारा करता था। उसने मुझे  भी ईश्वर, यहां तक की ईसाईयत से भी दूर ही रखा। यह मेरी जिंदगी का सबसे दुखद दौर था लेकिन 2005 में एक दिन मैं अपनी मां की मदद से इस मुश्किलभरे दौर से बाहर निकल आई, मैंने अपने पति को छोड़कर अपने पुत्र और मां के साथ जिंदगी को आगे बढ़ाया। मैें अपना अच्छा कैरियर बनाने के लिए कठिन परिश्रम में जुट गई क्योंकि अब परिवार का पूरा दारोमदार मुझ पर ही था।
मेरे मौत के बाद का जीवन?
विमानचालन के पेशे ने मुझे  कई बेहतर अवसर दिए। इन अवसरों में कई तो बहुत दिलचस्प थे। इस बीच मुझे  मलेशिया में रहने का मौका भी मिला। मलेशिया एक ऐसा देश जहां तीन धर्मों का प्रभाव देखने को मिलता है। मुख्य रूप से इस्लाम, हिंदू धर्म और बौद्ध  धर्म.

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

पूर्व अमेरिकी नौसैनिक ने कुबूल किया इस्लाम


अमेरिकी पूर्व नौसैनिक जीनेशा  की इस्लाम अपनाने की दास्तां।
जीनेशा बिंगम (जीनेशा ने इस्लाम अपनाने के बाद आइशा नाम रखा है) अमेरिकी नौसेना में एक सैनिक के रूप में कार्यरत्त  थी। जीनेशा की जिंदगी में कई तरह के उतार चढ़ाव आए। उनका जीवन बाल्यवस्था में यौन शोषण से गुजरते हुए, फिर अफगानिस्तान के युद्ध क्षेत्र से लास वैगास के नाइट क्लब होते हुए अस्पताल के बिस्तर पर इस्लाम अपनाकर सुकून हासिल करते हुए आगे बढ़ता है। 
जीनेशा की जुबां से जानिए उनकी इस्लाम अपनाने की कहानी।
मेरा नाम जीनेशा बिंगम (इस्लाम अपनाने के बाद जीनेशा बिंगम) है। मैं मोरमन कैथोलिक ईसाई धर्म में पैदा हुई। मैं पच्चीस साल की हूं। मैं अमेरिका के लास वेगास शहर में जन्मी,पली बढ़ी और कॉलेज की पढ़ाई की।
मेरा पारिवारिक माहौल बेहद गंदा था। मेरे पिता अक्सर मुझे झिाड़कते और पीटते थे। मेरी मां मुझे उनके उत्त्पीडऩ से बचाने में लगी रहती थी। पिता मेरी मां की भी पिटाई करते थे। मेरे दादा यौनाचारी थे। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि  वे मुझे अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। मेरे दादा ने मेरी मां, मेरी बहिन और मेरे साथ बलात्कार किया। जब भी मेरे पिता शराब पीए हुए होते तो हम समझ लेते थे कि घर में हम में से कोई ना कोई जख्मी जरूर होगा। मेरे पिता मुझे लज्जित करने के लिए मेरे रिश्तेदारों और मित्रों के सामने बुरी तरह पीटते थे। मैं अक्सर सोचती ईश्वर मेरे साथ आखिर ऐसे क्यों होने दे रहा है। ऐसे उत्पीड़क और घुटनभरे माहौल में मैं बड़ी  हुई। जब मैं चौदह साल की हुई तो मेरी मां हम भाई बहिनों को लेकर घर छोड़कर आ गई। जिस रात हम निकले हमारे पिता ने हमें गाड़ी से कुचलने की कोशिश की। पिता से छुटकारा लेकर हम पांचों एक महान शख्स की शरण में चले गए। उस शख्स ने हम भाई-बहिनों को अपनी संतान की तरह रखा। यहां हमें ऐसा लगा मानों हम ईश्वर की कृपा में आ गए। यह शख्स नास्तिक होने के बावजूद भला आदमी था।
इस बीच मैंने हाई स्कूल पास किया और मैं नौ सेना में भर्ती हो गई। मैं छठी मेरीन बटालियन की एक टुकड़ी में रेडियो ऑपेरटर थी। यह बटालियन अमेरिका की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित बटालियन होने के साथ ही खतरनाक जंग में हिस्सा लेने की काबिलियत रखती थी। हमारी बटालियन को मार्च 2008 में अफगानिस्तान के गार्मसिर में तालिबान से लडऩे के लिए भेजा गया। हमारी तालिबानियों से चार महीने तक  जंग चलती  रही। इसी जंग में हमारी एक साथी को गोली लगी। हमें आदेश मिला कि उस साथी की मदद की जाए ताकि उसे मेडिकल सहायता उपलब्ध कराई जा सके। दोनों तरफ गोलीबारी के बीच हम अपने साथी को बचाने की कोशिश के बीच ही एक गोली मेरे चेहरे के नजदीक से दनदनाती हुई गुजरी। गोली नजदीक से गुजरने से मुझे दो दिनों तक अपने बाएं कान से कुछ भी सुनाई नहीं दिया। मुझे लगा मानो मौत मुझे छूकर चली गई हो। हमारे टीम लीडर ने हमें बता रखा था कि युद्ध के मोर्चे पर किसी को भी नास्तिक नहीं रहना चाहिए। मैं गोलीबारी के बीच आगे बढ़ती रही और ईश्वर से प्रार्थना करती रही कि वह मेरी हिफाजत करे। हालांकि सच्चाई यह है कि  उस वक्त ईश्वर में मेरी सच्ची आस्था नहीं थी। हम उस घायल नौसेनिक को स्टे्रचर पर लेकर आगे बढ़े। मैंने उस घायल सैनिक को देखकर महसूस किया मानो उसकी आत्मा उसके शरीर को छोड़कर बाहर आ रही हो।

बुधवार, 25 जून 2014

रूस की सिस्टर अलेना ने अपनाया इस्लाम

मैं हिजाब में खुद को बेहद कम्फर्ट फील करती हूं-अलेना

उनतीस वर्षीय अलेना काटकोवा रूस के साइबेरिया की है, लेकिन वे न्यूजीलैंड में कॉल सेंटर ऑपरेटर के रूप में काम करती है। जानिए उन्हीं से आखिर क्यों अपनाया उन्होंने इस्लाम।
मेरा जन्म रूस में हुआ। रूस जहां कोई धार्मिक माहौल नहीं था। मैं सन् 2008 में न्यूजीलैंड आ गई। न्यूजीलैंड एक ऐसा मुल्क है जहां कई देशों के लोग रहते हैं,जहां विभिन्न तरह की सभ्यताएं और धर्म हैं। जब मैंने न्यूजीलैंड की ऑकलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलोजी में पढ़ाई शुरू की तो वहां मेरी मुलाकात कई ऐसे स्टूडेंट्स से हुई जो मुसलमान थे। मैंने उत्सुकता और जिज्ञासा से इस्लाम संबंधी उनसे कई तरह के सवाल पूछना शुरू किया। उनसे पूछे जाने वाले सवाल दर सवाल का ही नतीजा है कि मैं इस्लाम अपनाकर मुसलमान हूं। इस्लाम ने मेरी जिंदगी को बिल्कुल ही बदल कर रख दिया। इस्लाम ने मुझे ईमानदार बना दिया और खासतौर पर मेरे व्यक्तित्व में बेहतर निखार आया।  इस्लाम अपनाने से पहले मैं दोस्तों के साथ पार्टी-क्लब वगैरह में खूब जाया करती थी, लेकिन इस्लाम अपनाने के बाद मैंने यह सब छोड़ दिया है।
मुसलमान बनने के बाद जबसे मैंने इस्लामी परिधान हिजाब पहनना शुरू किया है, लोगों का मेरे साथ व्यवहार बदल गया और वे मुझे पहले के बजाय अधिक इज्जत और सम्मान देने लगे।   इस्लाम के मुताबिक हम मुस्लिम महिलाएं मर्दों से हाथ नहीं मिला सकती, ना गले मिल सकती और ना ही चुंबन ले सकती हैं, यही वजह है कि मैं इन सबसे बचती हूं। मैं किसी पुरूष से मिलती भी हूं तो कहती हूं,' आपसे मिलकर अच्छा लगा, लेकिन माफी चाहूंगी कि मेरा मजहब आपसे हाथ मिलाने की मुझे इजाजत नहीं देता है।' वे समझ जाते हैं और मुस्कराने लगते हैं । वैसे भी न्यूजीलैंड एक उदार मुल्क है। हालांकि मुझे अपने परिवार की तरफ से कुछ चुनौतियां मिली, मेरी छोटी बहिन अभी भी यह समझ नहीं पाई और ना ही स्वीकार पाई है कि मैं मुसलमान बन गई हूं।
रूस में तो लोग अभी भी मुसलमानों को आतंकवादी के रूप में ही समझते हैं। दरअसल मीडिया मुसलमानों को इसी रूप में प्रस्तुत करता है। मैं इस्लामी पहनावे हिजाब में खुद को बेहद कम्फर्ट फील करती हूं। मैं अपना जॉब बदलने की सोच रही हूं क्योंकि मैं टीचर के रूप में योग्यता रखती हूं और पहल मैं टीचर बनने की ही सोचती थी।

रविवार, 8 जून 2014

बिकनी नहीं, इस्लामी पर्दा है औरत की आजादी का प्रतीक: सारा बॉकर

अमेरिका की पूर्व मॉडल, फिल्म एक्टे्रस, फिटनेस इंस्ट्रेक्टर सारा बॉकर ने अपनी ऐशो आराम और विलासितापूर्ण जिंदगी को छोड़कर इस्लाम अपना लिया। बिकनी पहनकर खुद को पूरी तरह आजाद कहने वाली सारा अब खुद इस्लामी परिधान 'हिजाब' पहनती हैं और कहती है कि महिला की सच्ची आजादी पर्दा करने (हिजाब) में है ना कि आधे -अधूरे कपड़े पहनकर अपना जिस्म दिखाने में।
पढि़ए सारा बॉकर की जुबानी कि कैसे वो अपने ठाट-बाठ वाली जिंदगी को छोड़कर इस्लाम की शरण में आई।

मैं अमेरिका के हार्टलैंड में जन्मी। अपने आसपास मैंने ईसाई धर्म के विभिन्न पंथों को पाया। मैं अपने परिवार के साथ कई मौकों पर लूथेरियन चर्च जाती थी। मेरी मां ने मुझे चर्च जाने के लिए काफी प्रोत्साहित किया और मैं इस तरह लूथेरियन चर्च की पक्की अनुयायी बन गई। मैं ईश्वर में पूरा यकीन करती थी लेकिन चर्च से जुड़े कई रिवाज मुझे अटपटे लगते थे और मेरा इन बातों पर भरोसा नहीं था जैसे कि चर्च में गाना, ईसा मसीह और क्रॉस की तस्वीरों की पूजा और 'ईसा की बॉडी और खून' को खाने की परंपरा।
धीरे-धीरे मैं अमेरिकी जीवनशैली में ढलती गई और और आम अमेरिकी लड़कियों की तरह बड़े शहर में रहने, ग्लेमरस लाइफ-स्टाइल, ऐशो आरामपूर्ण जिंदगी पाने की तलब मुझमें बढ़ती गई। भव्य जीवनशैली की चाहत के चलते ही मैं मियामी के साउथ बीच में चली गई जो कि फैशन का गढ़ था। मैंने वहां समुद्र के किनारे घर ले लिया। अपना ध्यान खुद को खूबसूरत दिखाने पर केन्द्रित करने लगी। मैं अपने सौदंर्य को बहुत महत्व देती थी और ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान खुद की ओर चाहती थी। मेरी ख्वाहिश रहती थी कि लोग मेरी तरफ आकर्षित  रहे। खुद को दिखाने के लिए मैं रोज समुद्र किनारे जाती। इस तरह मैं हाई फाई लाइफ स्टाइल और फैशनेबल जीवन जीने लगी। धीरे-धीरे वक्त गुजरता गया लेकिन मुझे  एहसास होने लगा कि जैसे-जैसे मैं अपने स्त्रीत्व को चमकाने और दिखाने के मामले में आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे मेरी खुशी और सुख-चैन का ग्राफ नीचे आता गया। मैं फैशन का गुलाम बनकर रह गई थी। मैं अपने खूबसूरत चेहरे का गुलाम बनकर रह गई थी। मेरी जीवनशैली और खुशी के बीच गैप बढ़ता ही गया। मुझे अपनी जिंदगी में खालीपन सा महसूस होने लगा। लगता था बहुत कुछ छूट रहा है। मानो मेरे दिल में सुराख हो। खालीपन की यह चुभन मेरे अंग-अंग को हताश, निराश और दुखी बनाए रखती थी। किसी भी चीज से मेरा यह खालीपन और अकेलापन दूर होता नजर नहीं आता था। इसी निराशा और चुभन के चलते मैंने शराब पीना शुरू कर दिया। नशे की लत के चलते मेरा यह खालीपन और निराशा ज्यादा ही बढ़ते  गए। मेरी इन सब आदतों के चलते मेरे माता-पिता ने मुझसे दूरी बना ली। अब तो मैं खुद अपने आप से भागने लगी।
फिटनेस इन्सट्रक्टर आदि के काम में मुझे जो कुछ पैसा मिलता वह यंू ही खर्च हो जाता। मैंने क/ई के्रडिट कार्ड ले लिए, नतीजा यह निकला कि मैं कर्ज में डूब  गई। दरअसल खुद को सुंदर दिखाने पर मैं खूब खर्च करती थी। बाल बनाने, नाखून सजाने, शॉपिंग माल जाने और जिम जाने आदि में सब कुछ खर्च हो गया। उस वक्त मेरी सोच थी कि अगर मैं लोगों के  आकर्षण का केन्द्र बनूंगी तो मुझे  खुशी मिलेगी। लोगों के देखने पर मुझे  अच्छा लगेगा। लेकिन इस सबका नतीजा उल्टा निकला। इस सबके चलते मेरे दुख, निराशा और बेचैनी का ग्राफ बढ़ता ही गया।
इन सब हालात से उबरने और इसका इलाज तलाशने के लिए मैंने सालों लगा दिए। मैंने सुकून हासिल करने के लिए मनोविज्ञान, किताबों और एक्सरसाइज आदि का  भी सहारा लिया। मुझे  इनसे अपने जीवन को सही तरीके से शुरू करने की शक्ति मिली। सुख चैन हासिल करने के लिए मैंने विभिन्न धर्मों का अध्ययन करना शुरू किया। अध्यात्म में दिलचस्पी लेने लगी। मैंने ध्यान और योग को भी समझने की कोशिश की। मैं इस तरफ ज्यादा ही जुट गई, मैं चाहती थी कि मुझे  यह स्पष्ट हो जाए कि मुझे  क्या करना चाहिए और किस तरह करना चाहिए। मैं अपनी जिंदगी के लिए एक तरीका और नियम चाहती थी लेकिन मैं इस तथाकथित उदारवादी और स्वच्छंदतावादी माहौल में यह हासिल नहीं कर पाई। इसी दौरान अमेरिका में 9/11 वाला आतंकवादी हमला हुआ। इस घटना के बाद इस्लाम पर चौतरफा हमले होने लगे। इस्लामी मूल्यों और संस्कृति पर सवाल उठाए जाने लगे। हालांकि उस वक्त इस्लाम से मेरा दूर-दूर तक का वास्ता भी ना था। इस्लाम को लेकर उस  वक्त मेरी सोच थी कि जहां स्त्रियों को कैद रखा जाता है, पीटा जाता है तथा यह दुनियाभर में आतंक का कारण है। इस बीच मैं अंतरराष्ट्रीय संबंधों का भी अध्ययन करने लगी। अमेरिकी इतिहास और इसकी विदेश नीति का बदसूरत सत्य को भी जाना। जातीय भेदभाव और जुल्म को देखकर मैं कांप गई। मेरा दिल टूट गया। दुनिया के दुखों ने मुझे  दुखी बना दिया। मैंने तय किया कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ मुझो भी कुछ करना चाहिए। मैं इंटरनेट के जरिए हाई स्कूल और कॉलेज के स्टूडेंट्स को मध्यपूर्व के लोगों के साथ की जा रही अमेरिकी नाइंसाफी और अत्याचार के बारे में जानकारी देने लगी। यही नहीं मैं स्थानीय कार्यकत्र्ताओं को साथ लेकर इराक के खिलाफ होने जा रहे अमरीकी युद्ध के विरुद्ध प्रदर्शन में जुट गई। अपने इसी मिशन के दौरान में एक अद्भुत शख्स से मिली, जो मुसलमान था। वह भी इराक युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन में लगा हुआ था। इससे पहले मैंने ऐसे किसी शख्स को नहीं देखा जो अपने मिशन के प्रति इस तरह जी जान से जुटा हो। वह इंसाफ और इंसानी हकों के लिए कार्यरत था। उस व्यक्ति ने इस मिशन के लिए अपनी एक संस्था बना रखी थी। मैं भी उसकी संस्था से जुड़ गई। उसके साथ काम करने के दौरान मैंने उससे इस्लामी सभ्यता, पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. और उनके साथियों के कई किस्से सुने। इससे पहले मैंने इनके बारे में ऐसा कुछ नहीं सुना था। यह  सुनकर मैं दंग रह गई। मैं इन बातों से बेहद प्रभावित हुई। मैं इस्लाम से प्रभावित होकर इसका अध्ययन करने लगी और मैंने कुरआन भी पढ़ी। कुरआन की शैली और अंदाज ने मुझो अपनी तरफ खींचा।  मैंने महसूस किया कि कुरआन इंसान के दिल और दिमाग पर गहराई से असर छोड़ता है। दरअसल जिस सच्चाई की मुझे  तलाश थी वह मुझो इस्लाम में मिली। बावजूद इसके शुरू में इस्लाम को लेकर मेरे दिल में कुछ गलतफहमियां थीं जैसे मैं समझ नहीं पाई थी कि आखिर मुस्लिम औरतें पूरा बदन ढकने वाली यह अलग तरह की पोशाक क्यों पहनती हैं? मैं सोचती थी कि मैं कभी इस तरह की पोशाक नहीं अपनाऊंगंी। उस वक्त मेरी सोच बनी हुई थी कि मैं वह हूं जो सबको दिखती हूं, अगर दूसरे लोग मुझे  देख ही नहीं सकेंगे तो आखिर मेरा अस्तित्व ही कहां बचा? मुझे  लगता था खुद को दिखाना ही मेरी पहचान और अस्तित्व है। अगर दूसरे लोग मुझे  देख ही नहीं सकते तो फिर मेरा अस्तित्व ही कहां रहा? मैं सोचती थी आखिर वे कैसी स्त्रियां हैं जो सिर्फ  घर में रहे, बच्चों की ही देखभाल करे और अपने पति की सुने। ऐसी औरतों का आखिर क्या अस्तित्व है? अगर वह घर के बाहर जाकर खुद की पहचान ना बनाए तो आखिर क्या जिंदगी हुई ऐसी औरतों की? पति की स्वामीभक्त बने रहने से आखिर क्या मतलब?
मैंने महिलाओं से जुड़े अपने इन सभी सवालों के जवाब इस्लाम में पाए। ये जवाब तर्कसंगत, समझ में आने वाले और महत्वपूर्ण थे। मैंने पाया कि इस्लाम एक धर्म ही नहीं जिंदगी जीने का तरीका है। इसमें सब तरह के इंसानों के लिए हर मामले में गाइड लाइन है। जिंदगी से जुड़े हर एक पहलू पर रोशनी डाली गई है। छोटी-छोटी बातों में भी दिशा निर्देश है जैसेे-खाना कैसे खाना चाहिए? सोना कै से चाहिए? आदि आदि। मुझे  यह सब कुछ अद्भुत लगा। यह सब कुछ जानने के बावजूद मैंने खुद को इस्लाम को समर्पित नहीं किया। दरअसल इस्लाम के मुताबिक चल पाना मुझे  मुश्किल लग रहा था। इसमें जिम्मेदारी बहुत थी। मैं स्वभाव से एक जिद्दी किस्म की लड़की थी और ऐसे में ईश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पण मेरे लिए मुश्किल था।
जनवरी 2003 की बात है। सर्द रात थी। मैं वाशिंगटन डीसी से प्रदर्शन करके बस से लौट रही थी। मैं सोचने लगी-मैं जिंदगी के कैसे चौराहे पर खड़ी हूं। मैं अपने काम से नफरत करती हूं, पति को छोड़कर मैं अलग हो गई हूं, जंग के खिलाफ लोगों को एकत्र करते-करते मैं ऊब गई हूं,। मेरी उम्र 29 साल थी लेकिन मेरे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर मैं करूं तो क्या करूं? मैं पूरी तरह टूट चुक ी थी। मैं रोने लगी और अपने आप से सवाल करने लगी-मैं एक अच्छी इंसान बनना चाहती हूं और इस दुनिया को भी अच्छा बनाने की कोशिश करना चाहती हूं लेकिन सोचती थी आखिर कैसे हो यह सब कुछ? आखिर मुझे  करना क्या चाहिए? मुझे  अपने अंदर से ही इसका जवाब मिला-मुसलमान बन जाओ। यही है कामयाबी का रास्ता। मेरे दिल में यह जवाब आते ही मुझे  एक अलग ही तरह के सुकून और चैन का एहसास हुआ। मैं खुशी और उत्साह से भर गई। मानो मेरे ऊपर शांति की चादर छा गई हो। मुझे  लगा मुझे  अपनी जिंदगी का मकसद मिल गया और जिंदगी जीने का कारण भी। जिंदगी तो जिंदगी ही है, यह इतनी आसान भी नहीं है लेकिन मेरे पास तो जीने के लिए अब मार्गदर्शक पुस्तक कुरआन है। एक सप्ताह बाद एक मस्जिद की नींव लगाने के लिए इकट्ठा हुए लोगों के सामने मैंने कलमा ए शहादत पढ़कर इस्लाम अपना लिया। मैंने स्वीकार किया कि अल्लाह एक ही है, उसके अलावा कोई इबादत करने लायक नहीं है और मुहम्मद (उन पर शांति हो) अल्लाह के बंदे व रसूल हैं। वहां सभी मुस्लिम बहनों ने मुझे  गले लगाया। मेरी आंखों में खुशी के आंसू थे।
मैं दूसरे दिन बाजार से इस्लामी परिधान हिजाब खरीद लाई और उसी दिन से मैंने इस्लामी पोशाक पहनना शुरू कर दिया। इस्लामी परिधान में मैं उसी रास्ते से गुजरती थी जिस पर कुछ दिन पहले मैं शॉटर्स और बिकनी पहनकर गुजरा करती थी। हालांकि उस रास्ते में लोग, शॉप्स, चेहरे वही थेेेे लेकिन  एक चीज जुदा थी और वह थी मुझे  मिलने वाली इज्जत और सुकून। उस गली में जो चेहरे मेरे जिस्म को शिकार के रूप में देखते थे, वे अब मुझे  नए नजरिए और सम्मान के साथ देखने लगे।  मैंने फैशनेबल सोसायटी के ऊपरी दिखावे के फैशन की जंजीरों को तोड़ दिया जो मुझे  गुलाम बनाए हुए थी। सच्ची बात तो यह है कि मुझे  एहसास हुआ कि मानो मेरे कंधों से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो। मेरे ऊपर दूसरों के सामने अच्छा दिखने का दबाव और सोच मेरे जेहन से निकल चुकी थी। कई लोग मुझे  आश्चर्य से देखते, कुछ दया की दृष्टि से और कुछ जिज्ञासा से। सच्चाई यह है कि इस्लामी पोशाक पहनने के बाद मुझे  लोगों के बीच इतना आदर और सम्मान  मिला जो मुझे  आज से पहले कभी नहीं मिला था। यह तो अल्लाह ही का करम था। जिस करिश्माई मुस्लिम शख्स ने मेरा इस्लाम से परिचय कराया था बाद में मैंने उसी से  शादी कर ली।
मेरे इस्लामी जिंदगी अपनाने के थोड़े ही दिनों बाद खबरें आने लगीं कि कुछ राजनेता और कथित मानवाधिकार कार्यकत्र्ता बुर्के का विरोध कर इस्लामी परिधान को महिलाओं के दमन और उन पर जुल्म का कारण बताने लगे। मिस्र के एक अधिकारी ने तो बुर्के को मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन का प्रतीक तक बता डाला। मुझे  यह सब पाखंड नजर आने लगा। मेरे समझ में नहीं आता आखिर पश्चिमी देशों की सरकारें और मानवाधिकार संगठन जब औरतों के संरक्षण के लिए आगे आते हैं तो उन पर एक ड्रेस कोड क्यों थोप देते हैं?  मोरक्को, ट्यूनिसिया, मिश्र जैसे देशों में ही नहीं बल्कि पश्चिमी लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देश ब्रिटेन, फ्रं ास, हॉलेंड आदि में हिजाब और नकाब पहनने वाली औरतों को शिक्षा और काम करने से रोक दिया जाता है। मैं खुद महिला अधिकारों की हिमायती हूं। मैं मुस्लिम महिलाओं से कहती हूं कि वे अपने पतियों को अच्छे मुसलमान बनाने की जिम्मेदारी निभाएं। वे अपने बच्चों की परवरिश इस तरह करें कि बच्चे पूरी इंसानियत के लिए रोशनी की मीनारें बन जाए। हर भलाई से जुड़कर भलाई फैलाएं और बुराई से रोकें। सदा सच बोलें। हक के साथ आवाज उठाएं और बुराई के सामने आवाज उठाएं। मैं मुस्लिम औरतों से कहती हूं कि वे मुस्लिम परिधान हिजाब और नकाब पहनने का अपना अनुभव दूसरी औरतों तक पहुंचाएं। जिन महिलाओं को हिजाब और नकाब पहनने का मौका कभी ना मिला हो उनको बताएं कि इसकी हमारी जिंदगी में क्या अहमियत है और हम दिल से इसे क्यों पहनती हैं। हम मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से पर्दा करती हैं और हम इसे कत्तई छोडऩे के लिए तैयार नहीं है।
पहले मैं मुसलमान नहीं थी, इस वजह से मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगी कि पर्दा करके हर औरतों को इससे खुशी और इज्जत पाने का अधिकार है, जैसा कि मैंने यह हासिल किया। पहले बिकनी मेरी आजादी का प्रतीक थी, जबकि सच्चाई यह है कि बिकनी ने मुझे  आध्यात्मिकता, सच्चे मानव मूल्यों और इज्जत से दूर कर दिया था। मुझे  साउथ बीच की पश्चिमी भव्य जीवनशैली और बिकनी छोडऩे में जरा भी संकोच महसूस नहीं हुआ क्योंकि उस सबको छोड़कर अपने रब की छांव में सुकून और चैनपूर्ण जिंदगी जी रही हूं। मैं पर्दे को बेहद पसंद करती हूं और मेरे पर्दा करने के अधिकार के लिए मैं मरने को भी तैयार हूं। आज पर्दा औरतों की आजादी का प्रतीक है। वे महिलाएं जो हया और हिजाब के खिलाफ बेहूदा और भोंडा पहनावा पहनती हैं, उन्हें मैं कहना चाहूंगी कि आपको एहसास नहीं है कि आप किस महत्वपूर्ण चीज से वंचित है।
मैंने मध्य पूर्व देशों की यात्रा की और अपने पति के साथ अमेरिका से मिस्र शिफ्ट हो गई। मैं अपनी सास के साथ यहां इस्लामी माहौल में जिंदगी गुजारती हूं। मुझे एक सुंदर परिवार मिल गया। इस परिवार से भी बड़े परिवार-मुस्लिम सोसायटी के परिवार की मैं सदस्य बन गई। यह मुझ पर अल्लाह का बहुत बड़ा अहसान है कि मुझे ऐसी जिंदगी हासिल हुई। अब मेरा दुख, निराशा, अकेलापन गायब है। मैं अब एक सामाजिक ढांचे के तहत जिंदगी गुजार रही हूं। मेरे पथ प्रर्दशन के लिए कुरआन के रूप में किताब है। मैं महसूस करती हूं कि मैं किसी की हूं। मेरा अस्तित्व है। मेरा एक घर है। मेरा खालीपन दूर हो गया है और दिल को पूर्णता का एहसास है। मुझे अल्लाह से उम्मीद है कि वह इस जिंदगी के बाद दूसरी जिंदगी (मौत के बाद की जिंदगी) में भी कामयाबी अता करेगा।
सारा बॉकर अभी 'द मार्च ऑफ जस्टिस' की कम्यूनिकेशन डायरेक्टर हैं और ग्लोबल सिस्टर नेटवर्क की संस्थापक है।  उनसे srae@marchforjustice.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।

शनिवार, 24 मई 2014

इंग्लैंड की महिला जज ने अपनाया इस्लाम

'सर्वशक्तिमान ईश्वर ने मुझे सच्ची राह दिखाई जिसके अलावा कोई और सीधा और सच्चा रास्ता नहीं है। मैं जितना ज्यादा इस्लाम और पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. के बारे में जानती और समझती गई मुझे एहसास होता चला गया कि मैं उसी राह पर चल रही हूं जिसकी मुझे तलाश थी और यही वह राह है जहां मुझे होना चाहिए था।'
यह कहना है इंग्लैंड की महिला जज मैरीलीन मॉरनिंगटॉन का जिन्होंने इस्लाम को समझने के बाद इसे अपना लिया।
मैरीलीन मॉरनिंगटॉन इंग्लैंड में जिला न्यायाधीश ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय लेक्चरर और घरेलू हिंसा व पारिवारिक कानून विषय की लेखिका हैं। मैरीलीन मॉरनिंगटॉन ने 1976 में वकालत की डिग्री हासिल की और 1976 से लिवरपूल में पारिवारिक कानून से जुड़े मामलों की प्रेक्टिस करने लगी। वे चालीस साल की उम्र में 1994 में लिवरपूल के नजदीक स्थित ब्रिकेनहेड शहर में डिस्ट्रिक्ट जज के पद पर नियुक्त हुईं। मॉरनिंगटॉन चालीस साल की उम्र में जिला न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने वाली पहली वकील थीं। मैरीलीन वल्र्ड एकेडमी ऑफ आर्ट्स एंड सांइस की शोधार्थी के रूप में चुनी गईं। मैरीलीन घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों की अच्छी जानकार है और उन्हें इस क्षेत्र में काफी सम्मान की नजर से देखा जाता है और इस फील्ड से जुड़े  विभिन्न ओहदों पर वे कार्यरत्त हैं । इस्लाम अपनाने से पहले दस से बारह वर्षों तक उन्होंने महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा से जुड़े केसों पर काम किया। मुसलमानों के बीच जाकर भी उन्होंने महिला और बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा का अध्ययन किया। मुस्लिम कम्युनिटी में इस मसले को बेहतर तरीके से समझने के लिए उन्होंने इस्लाम का अध्ययन शुरू कर दिया और मुसलमानों के बीच घुलने-मिलने लगीं।

रविवार, 2 मार्च 2014

विक्टोरिया एरिंगटोन अब आयशा

सिस्टर विक्टोरिया (अब आयशा) की इस्लाम अपनाने की दास्तां बड़ी दिलचस्प है। उनका पहली बार मुसलमान और इस्लाम से सामना 2002 में तब हुआ जब उन्होंने सेना की नौकरी जॉइन की और सऊदी अरब के सैनिकों के सम्पर्क में आई। और फिर उन्होंने साल 2011 में इस्लाम अपना लिया । अपनी जिंदगी में घटित एक दुखद घटना और कुरआन और हदीस (पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. की शिक्षाओं) का अध्ययन के बाद उन्हें अपनी जिंदगी का मकसद इस्लाम में ही नजर आया।

अस्सलामु अलैकुम
मेरा नाम विक्टोरिया एरिंगटोन (अब आयशा) है। मैं जॉर्जिया में पैदा हुई और गैर धार्मिक ईसाइ परिवार में पली-बढ़ी। मैंने गैर धार्मिक इसलिए कहा है क्योंकि हम अक्सर चर्च नहीं जाते थे और मेरे माता-पिता शराबी और स्मोकर थे। मेरे माता-पिता के बीच उस वक्त तलाक हो गया था जब मैं युवा थी। तलाक के बाद मेरी मां ने चार बार विवाह किया। मेरे पिता अक्सर काम के सिलसिले में सफर पर ही रहते थे और वे घर पर कम ही रुकते थे। इन हालात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरी पारिवारिक जिंदगी सामान्य नहीं रही।
ईसाइयत से जुड़े कई सवाल अक्सर मेरे दिमाग में घूमते रहते थे। जैसा कि ईसाइ मानते हैं कि ईसा मसीह पूरे इंसानों के गुनाहों की खातिर सूली पर चढ़े हैं। मैं सवाल उठाती थी अगर हमें ईसा मसीह के सूली पर चढऩे की वजह से पहले ही अपने गुनाहों की माफी मिल गई है तो फिर हमें नेक काम करने की आखिर जरूरत क्यों है? मनाही के बावजूद आखिर हम सुअर का गोश्त क्यों खाते हैं? आखिर एक ही वक्त में ईश्वर, ईश्वर और ईसा कैसे हो सकता है? यानी एक ईश्वर दो रूपों में वह भी एक ही वक्त में! ऐसे कई सवाल अक्सर मेरे जहन में उठते थे। मैं इन सवालों का जवाब चाहती थी लेकिन न परिवारवालों के पास और न ही पादरियों के पास मेरे इन सवालों का जवाब था। मेरे यह सवाल अनुत्तरित ही रहे।
साल 2002 में मैंने सेना की नौकरी जॉइन की और टे्रनिंग के दौरान मैं कई मुस्लिम सऊदी अरब के सैनिकों के सम्पर्क में आई। यह इस्लाम से मेरा पहला परिचय था। हालांकि उस वक्त धर्म को लेकर मैं संजीदा नहीं थी। दरअसल मेरी जिंदगी में एक अहम मोड़ 2010 में आया जब मुझे एक गंभीर पारिवारिक संकट का सामना करना पड़ा क्योंकि मेरे ईसाइ पति ने मुझे तलाक दे दिया था। इसी बीच मेरी मुलाकात एक शख्स से हुई जो मुस्लिम था। मैंने उस मुुस्लिम शख्स की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं और गतिविधियों पर गौर किया। उससे इस्लाम से जुड़े कई सवाल पर सवाल किए। उस मुस्लिम शख्स ने मुझ पर कभी भी इस्लाम नहीं थोपा बल्कि मुझसे कहा कि आप फलां-फलां किताबें पढें। उसने मुझो इस्लाम पर कई किताबें और कुरआन दी। मैंने पूरा कुरआन पढ़ डाला और बहुत कुछ बुखारी (इसमें मुहम्मद सल्ल. की शिक्षाएं संकलित हैं।) भी। इस्लाम पर और भी अनगिनत किताबें मैने पढ़ डाली। मैंने अपने हर एक सवाल का जवाब इस्लाम में पाया। मैंने इस्लाम में जिंदगी से जुड़े हर पहलू पर रोशनी पाई। मुझे हर एक मसले का समाधान इस्लाम में नजर आया। अब मैं जान चुकी थी कि यही एकमात्र रास्ता है जो मुझे सिखाता है कि मुझो अपनी जिंदगी किस तरह गुजारनी चाहिए।
मुझे अपने सवालों के जवाब चाहिए थे। मैं एक गाइड बुक चाहती थी जिसके मुताबिक मैं अपनी जिंदगी गुजार सकूं, और आखिर इसी के चलते मैनें दिसम्बर 2011 में इस्लाम अपना लिया।

शनिवार, 30 नवंबर 2013

नेपाल की अभिनेत्री पूजा लाम्बा इस्लाम की शरण में

नेपाल की मशहूर अभिनेत्री और मॉडल 31 वर्षीय पूजा लाम्बा ने लगभग तीन साल पहले इस्लाम अपना लिया। उनके इस्लाम अपनाने से भारत और नेपाल के कई लोग हैरत में हैं। बौद्ध परिवार में पली बढ़ी पूजा लाम्बा ने काठमांडू में इस्लाम कुबूल करने का ऐलान किया। पेश है उस दौरान पूजा लाम्बा से हुइ बातचीत के प्रमुख अंश।

किस बात से प्रभावित होकर आपने इस्लाम अपनाया?
मैं बौद्ध परिवार में पैदा हुई। एक साल पहले मैंने दूसरे धर्मों का अध्ययन करने का इरादा किया। मैंने हिंदू, ईसाई और इस्लाम मजहब का तुलनात्मक रूप में अध्ययन किया। विभिन्न धर्मों को समझने और जांचने के दौरान ही मैं कतर और दुबई गई और वहां मैं इस्लामिक सभ्यता से बेहद प्रभावित हुई। इस्लाम की एक बहुत बड़ी खूबी एक ईश्वर को मानना और उसी पर पूरी तरह यकीन करना है। एक ईश्वर को लेकर ऐसा मजबूत यकीन मैंने दूसरे धर्मो में नहीं देखा।
पूरी दुनिया का मीडिया इस्लाम के खिलाफ दुष्प्रचार कर रहा है और इस्लाम को आंतकवाद बढ़ाने वाले धर्म के रूप में पेश कर रहा है। क्या आप मीडिया के इस दुष्प्रचार से प्रभावित नहीं हुई?
सच्चाई यह है कि इस्लाम के खिलाफ मीडिया के दुष्प्रचार के कारण ही मैं इस्लाम को अपना पाई, क्योंकि मैंने अध्ययन के दौरान इस्लाम को मीडिया के दुष्प्रचार के विपरीत एक अच्छा मजहब पाया और अब मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि इस्लाम दुनिया का एकमात्र ऐसा मजहब है जो इंसाानियत और शांति को बढ़ावा देता है और इंसाफ की बात करता है।
आप फिल्मी दुनिया से जुड़ी रही हैं और आपसे जुड़े कई स्कैंडल मीडिया में आए हैं। एक बार तो आपने खुदकुशी करने की कोशिश भी की। आप इन मामलों में कुछ बताएंगी?
मेरी निजी जिंदगी के बारे में नेगेटिव छापकर मुझे  बदनाम करने के मामले में मैं मीडिया को दोष नहीं देना चाहूंगी क्योंकि यह तो मीडिया ने अपना बिजनेस बना रखा है। दरअसल मेरी तीन बार शादी हुई थी। मेरे पहले पति से मेरे एक बेटा है जो मेरी मां के साथ रहता है। मीडिया ने मेरे से जुड़ी बातों को जिस तरह उछाला उसको लेकर मैं सदमे में थी। लोगों को लगता था कि मशहूर होने के लिए मैं ही ऐसा कुछ कर रही हूं। हकीकत यह है कि इस सबके चलते मैं दुखी थी और खुदकुशी करना चाहती थी। इस बीच मैं अपने दोस्तों के साथ धार्मिक किताबें पढऩे लगी और इसका नतीजा निकला कि मैंने इस्लाम अपना लिया। मैं अब अपने गुजरे वक्त को पूरी तरह भूला देना चाहती हूं क्योंकि अब मैं बेहद खुश हूं और सम्मानजनक जिंदगी गुजार रही हूं।
पूजा जी, इस्लाम अपनाने के बाद आपकी जिंदगी में बड़े बदलाव देखने को मिल रहे हैं। आप हिजाब (पर्दा) करती हैं, शराब और धुम्रपान आपने छोड़ दिया है। क्या आप अल्लाह से अपने पिछले गुनाहों की  तौबा कर रही हैं?
प्लीज अब आप मुझे पूजा मत कहिए। पूजा मेरा पुराना नाम था और अब तो मैं आमिना फारुकी हूं। दरअसल इस्लाम अपनाने से पहले मैं बहुत दुखी और तनावपूर्ण जिंदगी गुजार रही थी। शराब और सिगरेट ही मेरा सहारा थी। शराब की इतनी आदी थी कि कई बार कुछ होश ही नहीं रहता था। मैं तनावपूर्ण जिंदगी बसर कर रही थी और मेरी जिंदगी में अंधकार ही अंधकार छाया हुआ था। लेकिन इस्लाम ने मुझे  इन हालात और बुराइयों से उबारा और अब मैंने शराब और सिगरेट पीना छोड़ दिया है। अब मैं इस्लाम के मुताबिक अपनी जिंदगी गुजार रही हूं।
इस्लाम अपनाने के मामले में आप किनसे प्रेरित हुई?
दरअसल बौद्ध धर्म से जुड़े मेरे कुछ कुछ दोस्तों ने इस्लाम अपना लिया था। उन दोस्तों ने जब मुझे  दुखी और परेशान देखा तो उन्होंने मुझे  इस्लाम से जुड़ी बातें बताईं। इस्लाम की शिक्षाओं से मुझे अवगत कराया। मैं इस्लाम का अध्ययन करने लगी। एक बार मैंने अपने दोस्त का इस्लाम पर लेक्चर सुना इससे मैं बेहद प्रभावित हुई। इस लेक्चर ने मेरे दिल की गहराइयों को छुआ। अब मुझे  किसी शख्स से किसी तरह का कोई डर नहीं रहा सिवाय एक अल्लाह के। और फिर मैंने उसी दिन इस्लाम अपना लिया।
इस्लाम अपनाने पर आपके परिवार वालों की क्या प्रतिक्रिया थी?
इस्लाम अपनाने के बाद मैंने दार्जिलिंग, इंडिया में रहने वाले मेरे परिवार को इस्लाम अपनाने की सूचना दी। मेरी मां ने मेरा पूरी तरह सहयोग किया। मेरे परिवार वाले बोले- तुमने सही रास्ता चुना है और अब तुम खुश हो तो हम भी तुम्हें खुश देखकर खुश हैं। मैं अब पूरी तरह बदल गई हूं और मैंने अपनी सारी बुरी आदतों को छोड़ दिया है। मेरे में आए इन बदलावों को लेकर मेरे परिवार वाले बेहद खुश हैं।
 इस्लाम अपनाने के मामले में मीडिया तो यह कर रहा है कि आपको किसी मुस्लिम शख्स से प्यार हो गया और आप उससे शादी कर चुकी है, इसलिए आपने इस्लाम अपनाया है। क्या यह सच है?
यह बेतुकी खबर है। मेरे कुछ मुस्लिम दोस्त हैं। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि मुझे  उनमें से किसी से प्यार हो गया और मैंने उससे शादी करने की वजह से इस्लाम अपनाया। हां यह जरूर है कि इस्लाम अपनाने के बाद भविष्य में अब मैं किसी मुस्लिम शख्स से ही शादी करूंगी। जब भी मैं शादी करने का निश्चय करूंगी, सबको इसकी जानकारी दूंगी।
साक्षात्कार-अब्दुस्सबूर नदवी
यह साक्षात्कार 6 नवंबर 2010 को साक्षात्कारकर्ता के ब्लॉग पर पब्लिश हुआ था।
http://anadvi.blogspot.in/2010/11/islam-is-very-great-religion-pooja-lama.html

इस्लामी विरोधी डच राजनेता ने अपनाया इस्लाम

क्या ये संभव है कि जीवन भर आप जिस विचारधारा का विरोध करते आए हों एक मोड़ पर आकर आप उसके अनुनायी बन जाएं. कुछ ऐसा ही हुआ है नीदरलैंड में.लंबे समय तक इस्लाम की आलोचना करने वाले डच राजनेता अनार्ड वॉन डूर्न ने अब इस्लाम धर्म कबूल लिया है.
अनार्ड वॉन डूर्न नीदरलैंड की घोर दक्षिणपंथी पार्टी पीवीवी यानि फ्रीडम पार्टी के महत्वपूर्ण सदस्य रह चुके हैं. यह वही पार्टी है जो अपने इस्लाम विरोधी सोच और इसके कुख्यात नेता गिर्टी वाइल्डर्स के लिए जानी जाती रही है

मगर वो पांच साल पहले की बात थी. इसी साल यानी कि 2013 के मार्च में अर्नाड डूर्न ने इस्लाम धर्म क़बूल करने की घोषणा की.
 नीदरलैंड के सांसद गिर्टी वाइल्डर्स ने 2008 में एक इस्लाम विरोधी फ़िल्म 'फ़ितना' बनाई थी. इसके विरोध में पूरे विश्व में तीखी प्रतिक्रियाएं हुईं थीं.
 "मैं पश्चिमी यूरोप और नीदरलैंड के और लोगों की तरह ही इस्लाम विरोधी सोच रखता था. जैसे कि मैं ये सोचता था कि इस्लाम बेहद असहिष्णु है, महिलाओं के साथ ज्यादती करता है, आतंकवाद को बढ़ावा देता है. पूरी दुनिया में इस्लाम के ख़िलाफ़ इस तरह के पूर्वाग्रह प्रचलित हैं."

इंग्लैंड की महिला पुलिस अफसर ने अपनाया इस्लाम

 अट्ठाइस वर्षीय पुलिस अधिकारी जेने केम्प ने घरेलू हिंसा से पीडि़त एक मुस्लिम महिला की मदद के दौरान इस्लामिक आस्था और विश्वास के बारे में जानने का निश्चय किया।  उन्होंने इस्लाम का अध्ययन किया और फिर इस्लाम अपनाकर मुसलमान बन गईं।
दो बच्चों की मां जेने केम्प ने बताया कि पुलिस अधिकारी के रूप में घरेलू हिंसा से पीडि़त एक मुस्लिम महिला की मदद के दौरान उसने इस्लाम को जाना और फिर इस्लाम से प्रभावित होकर इस्लाम कुबूल कर लिया।
इस्लाम के अध्ययन के दौरान केम्प ट्विटर पर कई मुस्लिमों के सम्पर्क में आईं, उनसे कई बातें जानीं और इस सबके बाद उन्होंने अपना कैथोलिक धर्म छोड़कर एक साल पहले इस्लाम धर्म अपना लिया और अब वे पूरी तरह इस्लाम के मुताबिक अपनी जिंदगी गुजार रही हैं। वे एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी के रूप में गश्त पर निकलती हैं लेकिन वे पूरी तरह इस्लामी हिजाब में होती हैं और अपनी ड्यूटी के समय को एडजेस्ट करके वे नमाज पढऩा नहीं भूलती हैं।
सात वर्षीय बेटी और नौ वर्षीय बेटे की सिंगल मदर जेने ने पिछले साल आधिकारिक रूप से इस्लाम अपना लिया और अपना नाम जेने केम्प से अमीना रख लिया। वे अपना  खाना खुद बनाती हैं ताकि वह पूरी तरह हलाल खाना हो।

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

ईसाई धर्मगुरु मुसलमान क्यों बन गए?

'पादरियों ने  अपनाया इस्लाम' किताब में दुनिया के सात देशों के ग्यारह ईसाई पादरियों और धर्मप्रचारकों की इस्लाम अपनाने की दास्तानें हैं। गौर करने वाली बात है कि ईसाईयत में गहरी पकड़ रखने वाले ये ईसाई धर्मगुरु आखिर इस्लाम अपनाकर मुसलमान क्यों बन गए? आज जहां इस्लाम को लेकर दुनियाभर में गलतफहमियां हैं और फैलाई जा रही हैं, ऐसे में यह किताब मैसेज देती है कि इस्लाम वैसा नहीं है जैसा उसका दुष्प्रचार किया जा रहा है। पुस्तक पढऩे पर आपको मालूम होगा कि ये ईसाई पादरी अपने धर्म के प्रचार में जुटे थे और इनमें से कई तो ऐसे थे जो मुसलमानों को ईसाईयत की तरफ दावत दे रहे थे। लेकिन इस्लाम के रूप में जब सच्चाई इनके सामने आई तो इन्होंने इसे अपना लिया।  आज इस्लाम कुबूल करने वालों में एक बड़ी तादाद ईसाई पादरियों और धर्मप्रचारकों की है। ईसाई धर्मज्ञाताओं का इस्लाम को गले लगाने के बारे में कुरआन चौदह सौ साल पहले ही उल्लेख कर चुका है। गौर कीजिए कुरआन की इन आयतों पर -
तुम ईमान वालों का दुश्मन सब लोगों से बढकर यहूदियों और मुशरिकों को पाओगे और ईमान वालों के लिए मित्रता में सबसे निकट उन लोगों को पाओगे जिन्होंने कहा कि -हम ईसाई हैं।  यह इस कारण कि ईसाईयों में बहुत से धर्मज्ञाता और संसार त्यागी संत पाए जाते हैं। और इस कारण कि वे अहंकार नहीं करते। जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आखें आंसुओं से छलकने लगती हैं । इसका कारण यह है कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है।  वे कहते हैं-हमारे रब, हम ईमान ले आए। इसलिए तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले। 
                                                               (5 : 82-83)

यहां पेश हैं किताब के कुछ अंश-
1 ब्रिटेन के अन्य लोगों की तरह पहले मुसलमानों को लेकर मेरा भी यही नजरिया था कि मुसलमान आत्मघाती हमलावर, आतंकवादी और लड़ाकू होते हैं। दरअसल ब्रिटिश मीडिया मुसलमानों की ऐसी ही तस्वीर पेश करता है। इस वजह से मेरी सोच बनी हुई थी कि इस्लाम तो उपद्रवी मजहब है। काहिरा में मुझो एहसास हुआ कि इस्लाम तो बहुत ही  खूबसूरत धर्म है-  
                        इदरीस तौफीक-इंग्लैण्ड-पूर्व कैथोलिक ईसाई    पादरी- पेज नं-28

शनिवार, 29 जून 2013

ईसाई धर्म प्रचारक बन गया कुरआन का मुरीद

एक अहम ईसाई धर्म प्रचारक कनाडा के गैरी मिलर ने इस्लाम अपना लिया और वे इस्लाम के लिए एक महत्वपूर्ण संदेशवाहक साबित हुए। मिलर सक्रिय ईसाई प्रचारक थे और बाइबिल की शिक्षाओं पर उनकी गहरी पकड़ थी। वे गणित को काफी पसंद करते थे और यही वजह है कि तर्क में मिलर का गहरा विश्वास था।

एक अहम ईसाई धर्म प्रचारक कनाडा के गैरी मिलर ने इस्लाम अपना लिया और वे इस्लाम के लिए एक महत्वपूर्ण संदेशवाहक साबित हुए। मिलर सक्रिय ईसाई प्रचारक थे और बाइबिल की शिक्षाओं पर उनकी गहरी पकड़ थी। वे गणित को काफी पसंद करते थे और यही वजह है कि तर्क में मिलर का गहरा विश्वास था। एक दिन गैरी मिलर ने कमियां निकालने के  मकसद से कुरआन का अध्ययन करने का निश्चय किया ताकि वह इन कमियों को आधार बनाकर मुसलमानों को ईसाइयत की तरफ बुला सके और उन्हें  ईसाई बना सके। वे सोचते थे कि कुरआन चौदह सौ साल पहले लिखी गई एक ऐसी किताब होगी जिसमें रेगिस्तान और उससे जुड़े कहानी-किस्से होंगे। लेकिन उन्होंने कुरआन का अध्ययन किया तो वह दंग रह गए। कुरआन को पढ़कर वह आश्चर्यचकित थे। उन्होंने कुरआन के अध्ययन में पाया कि दुनिया में कुरआन जैसी कोई दूसरी किताब नहीं है। पहले डॉ. मिलर ने सोचा था कि कुरआन में पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. के मुश्किलभरे दौर के किस्से होंगे जैसे उनकी बीवी खदीजा रजि. और उनके बेटे-बेटियों की मौत से जुड़े किस्से। लेकिन उन्होंने कुरआन में ऐसे कोई किस्से नहीं पाए बल्कि वे कुरआन में मदर मैरी के नाम से पूरा एक अध्याय देखकर दंग रह गए।

इस्लाम में है अमेरिकी रंग-भेद की समस्या का समाधान: मेलकॉम एक्स

यह एक अफ्रो-अमेरिकन  जाने-माने क्रांतिकारी मेलकॉम एक्स की इस्लाम का अध्ययन करने और फिर इसे अपनाने  की दास्तां है। मेलकॉम एक्स ने अमेरिका की रंग-भेद की समस्या का समाधान इस्लाम में पाया। मेलकॉम एक्स कहता था-मैं एक मुसलमान हूं  और सदा रहूंगा। मेरा धर्म इस्लाम है।
मशहूर मुक्केबाज मुहम्मद अली के साथ मेलकॉम
जाने-माने और क्रांतिकारी शख्स मेलकॉम एक्स का  जन्म 19 मई 1925 को नेबरास्का के ओहामा में हुआ था। उसके माता-पिता ने उसको मेलकॉम लिटिल नाम दिया था। उसकी मां लुई नॉर्टन घरेलू महिला थी और उसके आठ बच्चे थे। मेलकॉम के पिता अर्ल लिटिल स्पष्टवादी बेपटिस्ट पादरी थे। अर्ल काले लोगों के राष्ट्रवादी नेता मारकस गेर्वे के कट्टर समर्थक थे और उनके कार्यकर्ता के रूप में जुड़े थे। उनके समर्थक होने की वजह से अर्ल को गोरे लोगों की तरफ से धमकियां दी जाती थीं, इसी वजह से उन्हें दो बार परिवार सहित अपने रहने की जगह बदलनी पड़ी। मेलकॉम उस वक्त चार साल के थे। गोरे लोगों ने अर्ल के लॉन्सिग, मिशिगन स्थित घर को जलाकर राख कर दिया और इस हादसे के ठीक दो साल बाद अर्ल लिटिल का कटा-पिटा शव शहर के ट्रॉली-ट्रेक के पार पाया गाया। इस हादसे के बाद उनकी पत्नी और मेलकॉम की मां लुई का मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया और उसे मनोचिकित्सालय में भर्ती कराना पड़ा। मेलकॉम की उम्र उस वक्त छह साल थी। ऐसे हालात में लुई के इन आठ बच्चों को  अलग-अलग अनाथालय की  शरण लेनी पड़ी।
मेलकॉम बचपन से ही चतुर और होशियार विद्यार्थी था। वह हाई स्कूल में क्लॉस में टॉप रहा। लेकिन जब उसने अपने प्रिय अध्यापक से वकील बनने की अपनी मंशा जाहिर की तो वह टीचर बोला-तुम जैसे नीग्रो स्टूडेंट के लिए वकील बनने के सपने देखना सही नहीं है। इसी सोच के चलते मेलकॉम की पढ़ाई में रुचि कम हो गई  और पंद्रह साल की उम्र में मेलकॉम ने पढ़ाई छोड़ दी। इस बीच मेलकॉम गलत लोगों की संगत में फंस गया और मादक पदार्थों के कारोबारियो से जुड़ गया। गलत संगत के चलते ही बीस साल की उम्र में धोखाधड़ी और चोरी के एक मामले में उसे सात साल की सजा हुई। जेल से बाहर आने पर उसने नेशन ऑफ इस्लाम के बारे में जाना। नेशन ऑफ इस्लाम से जुड़कर उसने इसके संस्थापक अलीजाह मोहम्मद की शिक्षाओं का अध्ययन किया और इसी के चलते 1952 में उसमें काफी बदलाव आ गया।

गुरुवार, 9 मई 2013

श्रीलंकाई ईसाई पादरी इस्लाम की शरण में

जॉज एंथोनी श्रीलंका में कैथोलिक पादरी थे। एंथोनी की इस्लाम कबूल करने और अपना नाम अब्दुल रहमान रखने की दास्तां बड़ी रोचक और दिलचस्प है।  एक ईसाई पादरी के रूप में उनकी बाइबिल की शिक्षा पर अच्छी पकड़ थी। वे आज भी फर्राटे से बाइबिल की कई आयतों को कोट करते हैं। बाइबिल अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि बाइबिल में कई विरोधाभास हैं। वे सिंहली भाषा में बाइबिल की उन आयतों का जिक्र करते हैं जो संदेहास्पद और विरोधाभाषी हैं।
वे कहते हैं कि बाइबिल में पैगम्बर मुहम्मद सल्ल.की भाविष्यवाणी की गई है। अब्दुल रहमान कहते हैं कि ईसाई ईसा मसीह को गॉड मानते हैं जबकि इसके विपरीत पवित्र बाइबिल में उन्हें एक इंसान के रूप में बताया गया है।
अब्दुल  रहमान कहते हैं कि ईसाइयत, बौद्ध धर्म और अन्य दूसरे धर्मों में ईश्वर द्वारा पैगम्बर भेजे जाने की अवधारणा इतनी स्पष्ट और प्रभावी नहीं है बल्कि कई पैगम्बारों के मामले में ये धर्म खामोश हैं जबकि इस्लाम में सभी पैगम्बरों को मानना और उन्हें पूरा-पूरा सम्मान देना जरूरी है। इस्लाम की यह अवधारणा और नजरिया हर किसी को प्रभावित करता है और उस पर अपना असर छोड़ता है।
अब्दुल रहमान कहते हैं कि रोमन कैथोलिक पादरी पर शादी का प्रतिबंध लगाने के पीछे कोई कारण समझ में नहीं आता जबकि ईसाइयों के अन्य कई दूसरे वर्गों के पादरी शादी कर सकते हैं। अब्दुल  रहमान ईसाइयत से जुड़े ऐसे ही विरोधाभास और शंकाओं पर विचार मग्र और सोच विचार कर रहे थे कि इस बीच उन्हें एक ऑडियो कैसेट हासिल हुई। यह ऑडियो कैसेट श्रीलंका के ईसाई पादरी शरीफ डी. एल्विस के बारे में थी जिन्होंने ईसाइयत छोड़कर इस्लाम अपना लिया था। इस्लामिक विद्वान अहमद दीदात की कई ऑडियो कैसेट्स  से भी अब्दुल रहमान  बेहद प्रभावित हुए। वे लगातार सच्चाई की तलाश में जुटे रहे और फिर एक दिन फादर जॉर्ज एंथनी इस्लाम अपनाकर अब्दुल रहमान बन गए।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

आखिर ये शिक्षित महिलाएं मुसलमान क्यों हो गईं?

इस्लाम पर आरोप लगाया जाता है कि यह महिलाओं को उनका हक नहीं देता। अगर आप भी ऐसी ही सोच रखते हैं तो आपको यह किताब जरूर पढऩी चाहिए। यह किताब पढि़ए और जानिए आखिर विकसित देशों की इन पढ़ी लिखी महिलाओं ने  इस्लाम क्यों अपना लिया?
आखिर इस्लाम में इनको ऐसा क्या लगा कि इन्होंने अपना मूल धर्म छोड़कर इसे कबूल किया और कई तरह की परेशानियों के बावजूद वे इस्लाम पर डटी रहीं। इनको कई तरह से प्रताडि़त किया गया और इनको काफी कुछ खोना भी पड़ा लेकिन इन्होंने इस्लाम का दामन नहीं छोड़ा।इस किताब में जिक्र है दुनिया के विकसित मुल्कों से ताल्लुक  रखने वाली अस्सी शिक्षित महिलाओं का जिन्होंने इस्लाम अपनाया।
किताब का  नाम है- हमें खुदा कैसे मिला।
पढि़ए इस किताब को और सच्चाई से रूबरू होइए।


हमें खुदा कैसे मिला by islamicwebdunia

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

ईसाई पादरी अपना रहे हैं इस्लाम

शायद आप यकीन ना करें लेकिन हकीकत यही है कि इस्लाम की गोद में आने वाले लोगों में एक बड़ी तादाद ईसाई  पादरियों की है। यह किताब इसी सच्चाई को आपके सामने पेश करती है। यह ईसाई किसी एक मुल्क या इलाके  विशेष के नहीं है, बल्कि दुनिया के कई देशों के हैं। अंगे्रजी की इस किताब में 18  ईसाई पादरियों का जिक्र हैं जिन्होंने सच्चे दिल से इस्लाम की सच्चाई को कुबूल किया और ईसाईयत को छोड़कर इस्लाम को गले लगा लिया।
इस किताब में इनके वे इंटरव्यू शामिल किए गए हैं जिसमें उन्होंने बताया कि आखिर उन्होंने इस्लाम क्यों अपनाया। उनकी नजर में इस्लाम में ऐसी क्या खूबी थी कि उन्होंने पादरी जैसे सम्मानित ओहदे का त्यागकर इस्लाम को अपना लिया।
पुस्तक  में शामिल ये अट्ठारह पादरी ग्यारह  देशों  के हैं। इनमें शामिल हैं अमेरिका के यूसुफ एस्टीज, उनके  पिता, मित्र पेटे, स्यू वेस्टन, जैसन कू्रज, राफेल नारबैज, डॉ. जेराल्ड डिक्र्स, एम. सुलैमान, कनाडा के डॉ. गैरी मिलर, ब्रिटेन के इदरीस तौफीक, ऑस्ट्रेलिया के सेल्मा ए कुक, जर्मनी के डॉ. याह्या ए.आर. लेहमान, रूस के विचैसलव पॉलोसिन, इजिप्ट के इब्राहीम खलील, स्पैन के एंसलम टोमिडा, श्रीलंका के जॉर्ज एंथोनी , तंजानिया के मार्टिन जॉन और ब्रूंडी की मुस्लिमा।
  • इस्लाम अपनाने वाले ये पादरी वे हैं जिन्होंने हाल ही के दौर में इस्लाम को अपनाया। पढि़ए इस किताब को और जानिए इस्लाम की सच्चाई इन पूर्व पादरियों की जुबान से।
  • इस किताब को यहां पेश करने का मकसद इस्लाम से जुड़ी लोगों की गलतफहमियां दूर करना और इस्लाम की सच्चाई को बताना है, मकसद किसी भी मजहब का मजाक उड़ाना नहीं है।
  • क्लिक कीजिए और रूबरू होइए इस किताब से

    Eighteen Priests Journey From Church to Mosque

बुधवार, 1 अगस्त 2012

इस इसाई पादरी ने आखिर अपना धर्म क्यों बदल लिया?

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ब्रिटेन के पूर्व कैथोलिक ईसाई पादरी इदरीस तौफीक कुरआन से इतने हुए कि उन्होंने इस्लाम कुबूल कर लिया।
ईमानवालों के साथ दुश्मनी करने में यहूदियों और बहुदेववादियों को तुम सब लोगों से बढ़कर सख्त पाओग। और ईमानवालों के साथ दोस्ती के मामले में सब लोगों में उनको नजदीक पाओगे जो कहते हैं कि हम नसारा (ईसाई) हैं। यह इस वजह से है कि उनमें बहुत से धर्मज्ञाता और संसार त्यागी संत पाए जाते हैं और इस वजह से कि वे घमण्ड नहीं करते।
जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आंखें आंसुओं से छलकने लगती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है। वे कहते हैं-हमारे रब हम ईमान ले आए। अत तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले।          (सूरा:अल माइदा ८२-८३)
कुरआन की ये वे आयतें है जिन्हें इंग्लैण्ड में अपने स्टूडेण्ट्स को पढ़ाते वक्त इदरीस तौफीक बहुत प्रभावित हुए और उन्हें इस्लाम की तरफ लाने में ये आयतें अहम साबित हुईं।

बुधवार, 25 जुलाई 2012

इस्लाम कबूल किए जाने वाला धर्म

प्रोफेसर अब्दुल्लाह बैनिल अमरीका
प्रोफेसर बैनिल हैविट अमरीका के  एक मशहूर विचारक और लेखक रहे हैं। उनकी गिनती अमरीका के इस्लाम कबूल करने वाले अहम लोगों में की जाती है। उनका इस्लामी नाम अब्दुल्लाह हसन बैनिल है। इस लेख में उन्होंने इस्लाम की उन खूबियों का जिक्र  किया है जिनसे वे बेहद प्रभावित हुए।
मेरा इस्लाम कबूल करना कोई ताज्जुब की बात नहीं है न ही इसमें किसी तरह के लालच का कोई दखल है। मेरे खयाल में यह जहन की फितरती तब्दीली और उन धर्मों का ज्यादा अध्ययन करने का नतीजा है जो इंसानी अक्लों  पर काबिज है। मगर यह बदलाव उसी शख्स में  पैदा हो सकता है जिसका दिल व दिमाग धार्मिक पक्षपात और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठा हुआ हो और साफ दिल से अच्छे और बुरे में अंतर कर सकता हो।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

पादरी जो मुसलमान हो गया

इब्राहिम खलील अहमद जिनका पुराना नाम खलील फिलोबस था, पहले इजिप्ट के कॉप्टिक पादरी थे। फिलोबस ने धर्मशास्त्र में प्रिंसटोन यूनिवर्सिटी से एम ए किया। इस्लाम को गलत रूप में पेश करने के मकसद से फिलोबस ने इसका अध्ययन किया। वे इस्लाम में कमियां ढूढना चाहते थे लेकिन हुआ इसका उलटा। वे इस्लाम से बेहद प्रभावितहुए और उन्होने अपने चार बच्चों के साथ इस्लाम कबूल कर लिया।
जानिए खलील इब्राहिम आखिर कैसे आए इस्लाम की गोद में?मैं १३जनवरी १९१९को अलेक्जेन्डेरिया में पैदा हुआ था। मैंने सैकण्डरी तक की शिक्षा अमेरिकन मिशन स्कूल से हासिल की। १९४२ में डिप्लोमा हासिल करने के बाद मैंने धर्मशास्र में स्पेशलाइजेशन के लिए यूनिवर्सिटी में एडमिशान लिया। धर्मशास्र में प्रवेश लेना आसान नहीं था। चर्च की खास सिफारिश पर ही इस विभाग में एडमिशन लिया जा सकता था और इसके लिए एक मुशिकल परीक्षा से भी गुजरना पडता था। मेरे लिए अलेक्जेन्डेरिया अलअटारिन चर्च ने सिफारिश की और लॉअर इजिप्ट की चर्च असेम्बली ने भी मेरा इम्तिहान लिया।

रविवार, 9 जनवरी 2011

अब मैं मुस्लिम के रूप में ही जीना चाहती हूं

वे कट्टर ईसाई थीं। लेकिन जब इस्लाम का अध्ययन किया और इस्लाम के रूप में सच्चाई सामने आई तो इसे अपना लिया।
पूर्व पादरी, मिशनरी, प्रोफेसर और धर्मशास्त्र में मास्टर डिग्री धारक खदीजा स्यू वेस्टन की जुबानी कि आखिर वे किस तरह इस्लाम की आगोश में आईं।
  यह तुम्हें क्या हो गया है? यह पहली प्रतिक्रिया होती थी जब इस्लाम अपनाने के बाद पहली बार मेरे क्लास के साथी, दोस्त और साथी पादरी मुझसे मिलते थे।
मुझे लगता मैं उनको दोष नहीं दे सकती थी। धर्म बदलने की वजह से मैं उनके लिए सबसे ज्यादा नापसंदीदा बन गई थी। पहले मैं प्रोफेसर, पादरी, चर्च प्लांटर और मिशनरी थी। धर्म के मामले में मैं बेहद कट्टर थी।    बात तब की है जब मैंने पादरियों की एक विशेष शिक्षण संस्था से ग्रेजुएशन के बाद धर्मशास्त्र में मास्टर डिग्री ली ही थी। इसके छह महीने बाद ही मेरी मुलाकात एक महिला से हुई जो सऊदी अरब में काम करती थी और वह इस्लाम अपना चुकी थी। मैंने उस महिला से जाना कि इस्लाम में महिलाओं को किस तरह की हैसियत और अधिकार दिए गए हैं? उसका जवाब जानकर मुझे बेहद हैरत हुई। दरअसल मैं नहीं जानती थी कि इस्लाम में महिलाओं को इतना ऊंचा मुकाम दिया गया है।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

टोनी ब्लेयर की साली मुसलमान बनी

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की साली ने धर्म परिवर्तन कर इस्लाम कबूल कर लिया है. चेरी ब्लेयर की बहन लौरेन बूथ ने पिछले दिनों  इस्लाम कबूल करने की घोषणा की. बूथ पेशे से पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार 43 साल की बूथ ने इस्लाम कबूल करने की बात लंदन में पिछले दिनों  सामाजिक संगठन ग्लोबल पीस एंड यूनिटी 2010 के बैनर तले हुए एक कार्यक्रम में उजागर की. कई इस्लामिक  नेताओं की मौजूदगी में बूथ ने बताया कि उन्होंने यह फैसला उन लोगों की धारणा बदलने के लिए किया है जो इस्लाम को आतंकवाद फैलाने वाला मानते हैं.
http://www.dw-world.de/dw/article/0,,6147468,00.html

रविवार, 5 सितंबर 2010

सोच-समझकर इस्लाम चुना

आमिना थॉमस
(भूतपूर्व ‘अन्नम्मा थॉमस’)
ईसाई पादरी की बेटी
केरल, भारत
क़ुरआन और बाइबल के तुलनात्मक अध्ययन और सच्चे दिल से अल्लाह के सामने दुआ ने इस्लाम की ओर झुके हुए मेरे दिल को ताक़त दी और मैं अन्दर ही अन्दर मुसलमान हो गई।
  मैं दक्षिणी भारत के एक प्रोटेस्टेंट ईसाई घराने में पैदा हुई और पली-बढ़ी। लेकिन अब मैं बहुत ख़ुश हूं कि मैं एक मुस्लिम औरत हूं। केवल संयोगवश मुसलमान नहीं बनी, बल्कि ख़ूब सोच-समझकर मैंने इस्लाम का चयन किया है। संसार के पालनहार, जिसने सही रास्ते अर्थात् इस्लाम की ओर मेरा मार्गदर्शन किया, उसका मैं जितना भी शुक्र अदा करूं, कम है। मेरा इस्लाम क़बूल करना विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन का परिणाम है।

रविवार, 29 अगस्त 2010

तीन हजार अमेरिकी सैनिकों ने अपनाया इस्लाम

नमाज़ अदा करते अमेरिकी मुस्लिम सैनिक
डॉ. अबू अमीना बिलाल फीलिप्
क्या आपने भी सुना था कि खाड़ी युद्ध के दौरान तीन हजार अमेरिकी सैनिकों ने इस्लाम अपना लिया था। यह सच है। बहुत कम लोग जानते हैं कि इस बदलाव के पीछे कौन हैं? जिन लोगों ने इस्लाम की यह दावत इन अमेरिकी सैनिकों तक पहुंचाई उनमें से एक अहम शख्सियत हैं डॉ. अबू अमीना बिलाल फीलिप्स। अबू अमीना फीलिप्स जमैका में जन्मे और पढ़ाई कनाड़ा में की । फिलहाल वे दुबई अमेरिकन यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं। अबू अमीना पहले ईसाई थे लेकिन 1972 में इस्लाम अपनाकर वे मुस्लिम बन गए।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

एक साथ तीन पादरी मुसलमान



अमेरिका के तीन ईसाई पादरी इस्लाम की शरण में आ गए। उन्हीं तीन पादरियों में से एक पूर्व ईसाई पादरी यूसुफ एस्टीज की जुबानी कि कैसे वे जुटे थे एक मिस्री मुसलमान को ईसाई बनाने में, मगर जब सत्य सामने आया तो खुद ने अपना लिया इस्लाम।
 बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं कि आखिर मैं एक ईसाई पादरी से मुसलमान कैसे बन गया? यह भी उस दौर में जब इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ हम नेगेटिव माहौल पाते हैं। मैं उन सभी का शुक्रिया अदा करता हूं जो मेरे इस्लाम अपनाने की दास्तां में दिलचस्पी ले रहे हैं। लीजिए आपके सामने पेश है मेरी इस्लाम अपनाने की दास्तां-
  मैं मध्यम पश्चिम के एक कट्टर इसाई घराने में पैदा हुआ था। सच्चाई यह है कि मेरे परिवार वालों और पूर्वजों ने अमेरिका में कई चर्च और स्कूल कायम किए। 1949 में जब मैं प्राइमेरी स्कूल में था तभी हमारा परिवार टेक्सास के हाउस्टन शहर में बस गया।